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________________ दूसरा प्रकरण । ५३ में रजत असत् प्रतीत होता है - वैसे ही अज्ञान करके मेरे स्वप्रकाश आत्मा में असत् जगत् प्रतीत हो रहा है, यही बड़ा भारी आश्चर्य है ॥ ९ ॥ मूलम् । मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति । मृदि कुम्भोजले वीचिः कनके कटकं पदच्छेदः : । मत्तः, विनिर्गतम्, विश्वम्, मयि, एव, लयम्, एष्यति, मृदि, कुम्भ:, जले, वीचिः, कनके, कटकम्, यथा ॥ अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । मत्तः = मुझ विनिर्गतम् = उत्पन्न हुआ इदम् = यह विश्वम् = संसार मयि =मुझमें लयम् = लय को एष्यति = प्राप्त होगा यथा=जैसे यथा ॥ १० ॥ मृदि= मिट्टी में कुम्भ=घड़ा जले= जल में वाचिः=लहर कनके स्वर्ण में कटकम् = भूषण लय यान्ति शब्दार्थ | = लय होते हैं | भावार्थ | जैसे घट मृत्तिका का कार्य है अर्थात् मृत्तिका से ही उत्पन्न होता है, और फिर फूटकर मृत्तिका में ही लय हो जाता है - वैसे ही जगत् भी प्रकृति का कार्य है अर्थात् प्रकृति से ही उत्पन्न होता है और प्रकृति में ही लय हो जाता है | चेतन आत्मा से न जगत् उत्पन्न होता है, और न उसमें लय होता है, क्योंकि जगत् जड़ और आत्मा चेतन
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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