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________________ पहला प्रकरण । ३५ अन्वयः। स्वरूप पदच्छेदः । त्वया, व्याप्तम्, इदम, विश्वम्, त्वयि, प्रोतम्, यथार्थतः, शुद्ध बुद्धस्वरूपः, त्वम्, मागमः, क्षुद्रचित्तताम् ।। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ । इदम् यह त्वम्-तू विश्वम् संसार यथार्थतः परमार्थ से त्वया-तुझ करके शुद्धबुद्ध } =शुद्ध चैतन्य-स्वरूप है व्याप्तम् व्याप्त है क्षुद्रचित्वयि-तुझी में त्तताम् । =विपरीत चित्त-वृत्ति को प्रोतम्-पिरोया है मागमः मत प्राप्त हो। भावार्थ । हे जनक ! जैसे स्वर्ण करके कंकणादिक व्याप्त हैं और मत्तिका करके जैसे घटादिक व्याप्त हैं, वैसे यह सारा जगत् तझे चेतन करके व्याप्त है और जैसे माला के सूत में दाने सब पिरोये हुए रहते हैं, वैसे यह सारा जगत् तेरे चेतन-रूप तागे करके पिरोया हुआ है। जैसे मिथ्या रजत शुक्ति की सत्ता करके सत्यवत् प्रतीत होती है-वास्तव में वह सत्य नहीं है, वैसे चेतन की सत्ता करके जगत् सत्य की तरह प्रतीत होता है-वास्तव में जगत् सत्य नहीं है। जगत् की अपनी सत्ता कुछ भी नहीं है, किन्तु तेरे संकल्प से यह जगत् उत्पन्न हुआ है, और तेरे संकल्प के निवृत्त होने से यह जगत् भी निवृत्त हो जावेगा। तू अपने शुद्ध-स्वरूप में स्थित हो, और क्षुद्रता को मत प्राप्त हो।। ___ मन्दालसा ने भी अपने पुत्रों को यही उपदेश करके संसार-बंधन से छुड़ा दिया था
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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