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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० पदच्छेदः । बहुना, अत्र, किम् उक्तेन ज्ञाततत्त्वः, महाशयः, भोगमोक्ष निराकाङक्षी, सदा, सर्वत्र, नीरसः । शब्दार्थ | ३४४ अन्वयः । अत्र = इसमें बहुना = बहुत = कहने से क्या प्रयोजन है ज्ञाततत्त्वः तत्त्व जाननेवाला 1 शब्दार्थ | भोग और मोक्ष की काङक्षी आकांक्षा का त्यागी महाशय:- ज्ञानी सदा-सदैव अन्वयः । भोगमोक्षनिरा सर्वत्र सर्वत्र नीरसः = राग-द्वेष रहित है || भावार्थ | जनक ! जो विद्वान् ज्ञाततत्व है, अर्थात् जिस विद्वान् ने आत्मतत्त्व को जान लिया है, उसी का नाम ज्ञाततत्त्व है । क्योंकि वह भोग और मोक्ष दोनों में निराकांक्षी है, आकांक्षा से रहित है । अर्थात् दोनों में राग द्वेष से रहित है ।। ६८ ।। मूलम् । महदादि जगद्द्द्वैतं नाममात्रविजृम्भितम् । विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते ॥ ६९ ॥ पदच्छेदः । महदादि, जगत्, द्वैतम्, नाममात्रविजृम्भितम्, विहाय, शुद्धबोधस्य, किम्, कृत्यम्, अवशिष्यते ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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