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________________ संस्पृहचित्तस्यः= इच्छा-सहित अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० तु-परन्तु कृत्रिमा बनावटवाली ___ शान्तिः शान्ति सस्पृहाचत्तस्यः । चित्तवाले न राजते नहीं शोभती है । मूढस्य अज्ञानी की भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! जो पुरुष निःस्पृह है, उसकी भी स्वाभाविक स्थिति शोभा करके युक्त ही होती है। क्योंकि उसमें कोई बनावट नहीं होती है। और जो मूढ़ इच्छा करके व्याकुल है, उसकी बनावट की शान्ति भी शोभायमान नहीं होती है ।। ५२ ।। मूलम। विलसन्ति महाभोगविशन्ति गिरिगह्वरान् । निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः ॥ ५३॥ पदच्छेदः । विलसन्ति, महाभोगैः, विशन्ति, गिरिगह्वरान्, निरस्तकल्पनाः, धीराः, अबद्धाः, मुक्तबुद्धयः ।। शब्दार्थ । | अन्वयः । शब्दार्थ । निरस्तकल्पना-कल्पना-रहित विलसन्ति=क्रीड़ा करते हैं अबद्धाः बन्धन-रहित + च और मुक्तबुद्धयः=मुक्त बुद्धिवाले +कदाचित् कभी धीराः ज्ञानी + कदाचित् / कभी प्रारब्ध । कन्दराओं में +प्रारब्धवशात् । वश से विशन्ति प्रवेश करते हैं । मी / बड़े-बड़े भोगों अन्वयः। गिरिगह्वरान्= पहाड़ की महाभोग- 1 के साथ
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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