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________________ अठारहवाँ प्रकरण । ३०७ भावार्थ । हे शिष्य ! मन्द पुरुष तत् और त्वं पद के कल्पित भेद को श्रुति से श्रवण करके भी संशय-विपर्यय के कारण मूढ़ता को ही प्राप्त होता है अथवा तत् और त्वं पद के अभेद अर्थ के जानने के लिये समाधि को लगाता है। परन्तु हजारों में कोई एक पुरुष अंतर से शान्त चित्तवाला होकर, बाहर से मूढ़वत् व्यवहार करता है ।। ३२ ।। मूलम्। एकाग्रता निरोधो वा मूडैरभ्यस्यते भृशम् । धाराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत्स्वपदे स्थिताः ॥ ३३ ॥ पदच्छेदः । एकाग्रता, निरोधः, वा, मूढः, अभ्यस्यते, भृशम्, धीराः, कृत्यम्, न, पश्यन्ति, सुप्तवत्, स्वपदे, स्थिताः ।। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। एकाग्रता-चित्त की एकाग्रता पूर्व कृत्य को अर्थात् वाच्या कृत्यम्= चित्त की एकाग्रता को निरोधः-चित्त की निरोधता और निरोधता को न पश्यन्ति-नहीं देखते हैं मूढः अज्ञानियों करके परन्तु-परन्तु मृशम् अत्यन्त अभ्यास किया जाता सुप्तवत- सोए हुए पुरुष की । तरह धीराः ज्ञानी पुरुष ' स्वपदे-अपने त्वरूप में स्थिताः स्थित रहते हैं ।। अन्वयः। अभ्यस्यते-1 है
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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