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________________ अन्वयः । इदमन्यह कर्म-कर्म अठारहवां प्रकरण | शब्दार्थ | देहे देह करके कृतम् = किया गया मया=मुझ शुद्धरूपिणा = शुद्ध रूप करके न=नहीं अन्वयः । २९९ शब्दार्थ | इति इस प्रकार यः जो चिन्तानुरोध = चिन्ता करनेवाला सः वह कुर्वन् कर्म करता हुआ अपि =भी न करोति नहीं करता है || भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! ज्ञानी ऐसा मानता है कि यह कर्म देह ने किया है, शुद्ध रूप आत्मा ने नहीं किया है । इसी कारण वह कर्मों को करता हुआ भी कुछ नहीं करता है | प्रश्न - अज्ञानी पुरुष व्यभिचार कर्मों को करके यदि ऐसा कहे कि यह सब कर्म देह ने किया है, तब उसकी भी मुक्ति होनी चाहिए ? उत्तर - अज्ञानी को कर्मों के फल में अध्यास बना रहता है, क्योंकि शुभ कर्म करने से उसके चित्त में हर्ष उत्पन्न होता है और अशुभ कर्म करने से उसके चित्त में भय और लज्जा उत्पन्न होती है, और व्यभिचार - कर्म करने में छिपाने का प्रयत्न करता है, इस वास्ते उसका निश्चय कच्चा है, वह कदापि मुक्त नहीं हो सकता है, और ज्ञानवान् का व्यवहार उससे उलटा है । शुभ कर्म करने से उसके चित्त में हर्ष नहीं होता है और अशुभ कर्म करने से उसके चित्त में भय और लज्जा नहीं होती है । और व्यभिचार-कर्म करने
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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