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________________ २८४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० इति ऐसी अयम् यह विकल्पना कल्पनाएँ कि अहम्=मैं अयम् यह न-नहीं हूँ सम्वह क्षीणा:-क्षीण हो जाती है अहम्=मैं हूँ भावार्थ । जिस विद्वान् ने ऐसा निश्चय किया है कि सर्वरूप आत्मा ही है। वह बाह्य शरीरादिकों के व्यापार से रहित हो जाता है, और वही जीवन्मुक्त भी कहा जाता है । कहा भी है वृत्तिहीनं मनः कृत्वा क्षेत्रज्ञं परमात्मनि । एकीकृत्य विमुच्येत योगोऽयं मुख्य उच्यते ॥ १॥ क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा में जो ध्येयाकारवृत्ति हुई थी, उस वृत्ति के नष्ट होने पर दोनों की एकता को निश्चय करके ही पुरुष मुक्त हो जाता है, अर्थात् जिस काल में मन नाना प्रकार की कल्पना से रहित हो जाता है, उसी काल में वह मुक्त कहा जाता है ।। ९ ॥ मूलम् । न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़तः । न सुखं न चवा दुःखमुपशान्तस्य योगिनः ॥ १० ॥ पदच्छेदः । न, विक्षेपः, न च, एकाग्रयम्, न, अतिबोधः, न मूढ़तः, न, सुखम्, न, च, वा, दुःखम्, उपशान्तस्य, योगिनः ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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