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________________ २५८ अन्वयः । अष्टावक्र गीता भा० टी० स० शब्दार्थ | धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष विषे धर्मार्थका ममोक्षेषु जीविते जीने विषे तथा=और मरणे-मरण विषे अन्वयः । विश्वविलये = भावार्थ | हे शिष्य ! ऐसा पुरुष संसार विषे दुर्लभ है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष और जीने मरने में उदासीन हो अर्थात् उसको सुखाकार दुःखाकार वृत्ति न व्यापे, अपने अद्वैत आत्मा में शान्त होकर स्थित रहे । सुख-दुःख सापेक्षिक है । जिसको सुख होता है, उसी को दुःख भी होता है । जिसको दुःख होता है, उसी को सुख भी होता है । हे प्रिय ! तुम इन दोनों से रहित होकर विचरो ॥ 11 कस्य =किस उदारचित्तस्य = उदार चित्त को हेयोपादेयता = त्याग और ग्रहण नहि नहीं है || मूलम् । वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ । यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम् ॥ ७ ॥ पदच्छेदः । शब्दार्थ | वाञ्छा, न, विश्वविलये, न, द्वेषः, तस्य, च, स्थितौ, यथा, जीविका, तस्मात्, धन्य, आस्ते, यथासुखम् ।। शब्दार्थ | अन्वयः । विश्व के लय होने में शब्दार्थ | अन्वयः । वाञ्छा इच्छा नहीं है
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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