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________________ अन्वयः। २५० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० धोती, नेती, वस्ती आदिक क्रिया करता हूँ, वह भी योगी नहीं है, किन्तु वह केवल दुःख का भोगनेवाला है ॥ १० ॥ मूलम् । हरो यधुपदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा। तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते ॥ ११ ॥ पदच्छेदः । • हरः, यदि, उपदेष्टा, ते, हरिः, कमलजः, अपि, वा, तथा, अपि, न, तव, स्वास्थ्यम्, सर्वविस्मरणात्, ऋते ।। शब्दार्थ। | अन्वयः। शब्दार्थ। यदि-अगर तथापि तो भी तेरा सर्वविस्मरणात उपदेष्टा-उपदेशक '= विस्मरण के हरः-शिव है याने त्याग के हरि-विष्णु है तव-तुझको वा अथवा स्वास्थ्यम् शान्ति कमलजा ब्रह्मा है न नहीं होगी। भावार्थ। अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! चाहे तुमको महादेव उपदेश करें या विष्णु उपदेश करें या ब्रह्मा उपदेश करें, तुमको सुख कदापि न होगा। जब विषयों का त्याग करोगे, तभी शान्ति और आनन्द को प्राप्त होगे । आत्मतत्त्व के उपदेश के पहिले विषयों का त्याग बहुत जरूरी है ॥११॥ इति श्री अष्टावक्रगीतायां षोडशकं प्रकरणं समाप्तम् ।।१६।। ऋते
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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