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________________ सोलहवाँ प्रकरण । पदच्छेदः । हेयोपादेयता, तावत्, संसारविटपाङ कुरः, जीवति यावत् वै निर्विचारशास्पदम् ॥ , शब्दार्थ | अन्वयः । 7 यावत् = जब तक स्पृहा तृष्णा यावत् = जब तक निविचार- - अविवेक दशा की स्थिति है दशा स्पदम् तावत् = तब तक अन्वयः । जीवति जीता है। + च और २४५ स्पृहा, शब्दार्थ | हेयोपादे -_ [ त्याज्य और यता ग्राह्य भाव मूलम् । प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि । निर्द्वन्द्वो बालवद्धीमानेवमेव व्यवस्थितः ॥ ८ ॥ रूप विटपाङ्क ुरः = वृक्ष का • अङ्कार है || भावार्थ | विचारशून्यदशा आस्पदीभूत का नाम तृष्णा है अर्थात् जिस काल में कोई विचार न हो, केवल भोगों की इच्छा ही उत्पन्न हो, उसका नाम तृष्णा है । अतः जो तृष्णालु पुरुष है, वह जब तक जीता है, ग्रहण- त्याग करता ही रहता है । संसाररूपी वृक्ष का अङकुर उत्पन्न करनेवाली तृष्णा ही है, सो तृष्णा जीवन्मुक्तों में नहीं रहती है । यदि प्रारब्धकर्म के वश से जीवन्मुक्त में ग्रहण -त्याग का व्यवहार होता भी रहे, तो भी उसकी कोई हानि नहीं है ॥ ७ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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