SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३६ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० अर्थात् अधिष्ठान असंग साक्षी हो करके तुम्हीं स्थित थे, और रहोगे । क्योंकि तुम्हारे में ही यह संसार रज्जुसर्पवत् कल्पित है । अब न तेरे में बन्ध है, और न मोक्ष है । तू कृतकृत्य है ।। १८ ॥ मूलम् । मा संकल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय । उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे ॥ १९ ॥ पदच्छेदः । मा, संकल्पविकल्पाभ्याम्, चित्तम्, क्षोभय, चिन्मय, उपशाम्य, सुखम् तिष्ठ, स्वात्मनि, आनन्दविग्रहे ॥ शब्दार्थ | अन्वयः । चिन्मय = हे चैतन्यस्वरूप ! संकल्प विकल्पा - = २ संकल्प - विकल्पों से भ्याम् चित्तम चित्त को + त्वम्=तू मा क्षोभय मत क्षोभित कर अन्वयः । शब्दार्थ | मन को शान्त | करके उपशाम्य= = आनन्द-__ f आनन्दविग्रहे । पूरित स्वात्मनि अपने स्वरूप में सुखम् = सुख-पूर्वक तिष्ठ = स्थित हो || भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे चैतन्यस्वरूप ! संकल्प और विकल्पों करके अपने चित्त को क्षुब्ध न करो, किन्तु संकल्प और विकल्प से तुम रहित होकर अपने आनन्दस्वरूप में स्थित हो । १९ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy