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________________ पन्द्रहवाँ प्रकरण | २२९ है, ये सब द्वैत में ही होते हैं । द्वैत तुम्हारा रूप तीनों कालों में नहीं है इसा से तुम्हारे जन्म और विकार के अभाव होने से कर्तृत्वादिकों का भी अभाव है । शुद्ध होने से तुम्हारे में अहंकार का भी अभाव है । तुम्हारा स्वरूप ज्यों का त्यों एकरस है ।। १३ ।। मूलम् । यत्त्वं पश्यसि तत्रैकस्त्वमेव प्रतिभाससे । किं पृथग्भासते स्वर्णात्कटकांगदनूपुरम् ॥ १४ ॥ पदच्छेदः । यत् त्वम्, पश्यसि, तत्र, एकः, त्वम्, एव, प्रतिभासते, किम्, पृथक्, भासते, स्वर्णात्, कटकांगदनूपुरम् ।। अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । यत् = जिसको त्वम्=तू पश्यसि = देखता है तत्र उस विषे एक: = एक त्वम् एव = तू ही प्रतिभाससे भासता है किम् = क्या कटकांगदनू पुरम्= शब्दार्थ | कॅगना बाजू स्वर्णात् = सुवर्ण से पृथक् पृथक् भासते भासता है || भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! जो कार्य तुम देखते हो, सो-सो कारण रूप ही है । छांदोग्य के छठे प्रपाठक में अरुण ऋषि ने अपने श्वेतकेतु पुत्र के प्रति कहा है । जब श्वेतकेतु
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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