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________________ पन्द्रहवाँ प्रकरण | २१७ उसमें नर्तकी है, याने नाचनेवाली वेश्या है, इन्द्रियगण सब ताल बजानेवाले हैं, चेतन आत्मा साक्षी सबका प्रकाशक - है । जैसे दीपक अपने स्थान में स्थित होकर सबको प्रकाश करता है, वैसे चेतन भी अचल स्थित साक्षी - रूप होकर सबको प्रकाश करता है । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! देह में जो इन्द्रिय और अहंकारादिक हैं, उनको तू अपने को साक्षी मानकर सुख - पूर्वक विचर ॥ ४ ॥ मूलम् । रागद्वेषौ मनोधर्मो न मनस्ते कदाचन । निर्विकल्पोऽसिबोधात्मा निर्विकारः सुखं चर ॥ ५ ॥ पदच्छेदः । रागद्वेषौ मनोधर्मौ न, मन, ते, कदाचन, निविकल्पः, असि, बोधात्मा, निर्विकारः, सुखम्, चर ॥ शब्दार्थ | अन्वयः । अन्वयः । रागद्वेषौ = राग और द्वेष मनोधर्मा=मन के धर्म हैं न ते तेरे नहीं हैं। मनः मन sarat कभी न=नहीं शब्दार्थ | ते तेरा है + त्वम्=तू निर्विकल्प:-विकल्प - रहित निर्विकारः = विकार रहित बोधात्मा=बोधस्वरूप असि है || भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! राग-द्वेषादिक सब मन के धर्म हैं, तुझ आत्मा के धर्म नहीं हैं । अन्यत्र भी कहा है
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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