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________________ पहला प्रकरण । १५ के लिये कर्त्तव्यता का अभाव कथन करते हैं । गीता में जिज्ञासु के प्रति कर्मों का निषेध कहा है जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते । भगवान् कहते हैं कि आत्म-ज्ञान का जिज्ञासु भी शब्द - ब्रह्म वेद की आज्ञा का उल्लंघन करके वर्त्तता है । अर्थात् जिज्ञासु के ऊपर भी कर्मकांड वेद भाग की आज्ञा अज्ञानी और कामी मूर्ख के ऊपर है । अतएव हे जनक ! यदि तू जिज्ञासु है तब भी तेरे ऊपर वर्णाश्रमों के धर्मों के करने की वेद की आज्ञा नहीं है । यदि तू लोकाचार के लिये करना चाहता है, तब उनकी आत्मा से पृथक्, अन्तःकरण का धर्म मान करके तू कर । मूलम् । धर्माss सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो । न कर्त्ताऽसि न भोक्ताऽसिमुक्त एवासि सर्वदा ॥ ६ ॥ पदच्छेदः । धर्माssधर्मो, सुखम्, दु:खम्, मानसानि, न, ते, विभो, न, कर्त्ता, असि, न भोक्ता, असि; मुक्तः, एव, असि, सर्वदा || शब्दार्थ | अन्वयः । अन्वयः । शब्दार्थ | विभो = हे ब्यापक ! मानसा नि-मन सम्बन्धी धर्माssent =धर्म और अधर्म सुखम् = सुख + च =और दुःखम् = दुःख ते= तेरे लिये न=नहीं हैं + च =और नन्न + त्वम्=तु कर्त्ता कर्त्ता
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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