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________________ पन्द्रहवाँ प्रकरण। अन्वय मूलम् । यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्त्वबुद्धिमान् । आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति ॥ १॥ पदच्छेदः। यथातथोपदेशेन, कृतार्थः, सत्त्वबुद्धिमान्, आजीवम्, अपि, जिज्ञासु, परः, तत्र, विमुह्यति ।। शब्दार्थ । | अन्वयः ।। शब्दार्थ । सत्त्वबुद्धिमान् सत्त्वबुद्धिवाला पुरुष । आजीवन-जीवनपर्यन्त यथातथोप-_जैसे-जैसे याने थोड़े | नाम [ जिज्ञासु होता देशेन । ही उपदेश से जाप हुआ भी कृतार्थः कृतार्थ तत्र उसमें भवति होता है को प्राप्त परः=असत् बुद्धिवाला पुरुष । विमुह्यति भावार्थ । अब तत्त्वोपदेशविंशतिक नामक पंचदश प्रकरण का आरम्भ करते हैं अष्टावक्रजी जनकजी की ज्ञानस्थिति के लिये पूनः-पुन: उपदेश करते हैं। क्योंकि 'छांदोग्योपनिषद्' में श्वेतकेतु के प्रति, श्वेतकेतु के पिता ने नव बार आत्मतत्त्व का उपदेश किया है। प्रथम ज्ञान के अधिकारी और अनधिकारी को दिखाते
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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