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________________ ग्यारहवाँ प्रकरण । १७७ ज्ञानवान् का ऐसा निश्चय होता है "नाहं देहः" मैं देह नहीं हूँ और "न मे देहः" मेरा यह देह नहीं है और मैं नित्य बोध-स्वरूप हूँ। आत्म-ज्ञान करके देहादिकों में दूर हो गया है अहं और मम अभिमान जिसका, कर्तव्य और अकर्तव्य जिसका बाकी नहीं रहा है, और कृत तथा अकृत का स्मरण भी जिसको नहीं है वही ज्ञानवान् जीवन्मुक्त कहा जाता है । इसमें एक दृष्टान्त को कहते हैं एक मंदिर में एक महात्मा रहते थे। आत्म-विद्या का अभ्यास करते करते उनकी अवस्था चढ़ गई थी, और शरीर की सब क्रियाएँ उनकी छट गई थीं। अतः जब कोई उनके मुख में भोजन डाल देता, तब खाते, जब कोई पानी पिलाता, तब पानी पीते थे और एक स्थान में बैठे रहते थे, किसी से बोलते, चालते न थे और अपने आत्मानंद में ही मग्न रहते थे। एक दिन दोपहर के समय उसी मंदिर में लड़के खेलते थे। एक लड़के ने कहा कि इन महात्मा के पट पर याने स्थल पर चौपट बनाकर खेलें, दूसरा लड़का चाक ले आया और जब चाकू से पट पर लकीरें खींचने लगा, तब उसमें से रुधिर बहने लगा। महात्मा ज्यों के त्यों पड़े रहे और लड़के डर के मारे भाग गये। कोई एक पुरुष मंदिर में आया और उसने महात्मा के पट में रुधिर बहते देखा, तब उसने इधर-उधर से पूछा, तो उसको मालम हआ कि यह लड़कों ने किया है। तब दो चार आदमी मिलकर जर्राह को बुला लाये। जब जर्राह आकर जखम को हाथ लगाकर सीने लगा, तब महात्मा ने न सीने दिया। जब
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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