SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवाँ प्रकरण । पदच्छेदः । आपदः, सम्पदः, काले, दैवात्, एव, इति, निश्चयी, तृप्तः, स्वस्थेन्द्रियः, नित्यम्, न, वाञ्छति, न, शोचति ।। शब्दार्थ । | अन्वयः । शब्दार्थ। काले-समय पर नित्यमतृप्तः नित्य संतुष्ट व आपदा-आपत्तियाँ स्वस्थेन्द्रियः । स्वस्थेन्द्रिय हुआ च-और (अप्राप्त वस्तु की सम्पदः सम्पत्तियाँ न वाञ्छति-2 इच्छा नहीं करता अन्वयः। है दैवात् एव देवयोग से ही च-और नम्न । शोचति नष्ट हुई वस्तु को । होती है ऐसा निश्चय इति निश्चय करनेवाला पुरुष । शोचता है ॥ भावार्थ । प्रश्न-यदि ईश्वर ही सर्व जगत् का रचनेवाला माना जावेगा, तब फिर किसी को दरिद्री, किसी को धनी, किसी को दुःखी किसी को सुखी न होना चाहिए। पर ऐसा प्रत्यक्ष देखते हैं, इसलिये ईश्वर में विषम दृष्टि आदिक दोष आते हैं ? उत्तर-हे राजन् ! ईश्वर में दोष तब आवे, जब ईश्वर किन्हीं कर्मों को रचे, सो तो नहीं है। क्योंकि गीता में भी लिखा है न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥१॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy