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________________ १५८ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० विलक्षण और अनिर्वचनीय है । उसका कार्य जगत् भी अनिर्वचनीय है । इस वास्ते इन दोनों में तृष्णा करनी अनुचित है, क्योंकि दोनों मिथ्या हैं । मिथ्या वस्तु में मूर्ख अज्ञानी तृष्णा को करता है, ज्ञानवान् कदापि नहीं करता है ॥ ५ ॥ मूलम् । राज्यं सुताः कलत्राणि शरीराणि सुखानि च । संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि ॥ ६ ॥ पदच्छेदः । राज्यम्, सुताः, कलत्राणि, शरीराणि सुखानि, च, संसक्तस्य, अपि, नष्टानि, तव, जन्मनि जन्मनि । अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । राज्यम् = राज्य सुताः = लड़के कलत्राणि स्त्रियाँ शरीराणि शरीर च=और सुखानि = सुख संसक्तस्य = आसक्त पुरुष के 1 शब्दार्थ | नष्टानि=नष्ट हुए हैं +च=और तब तेरे अपि =भी एते = ये सब जन्मनि जन्मनि = हर एक जन्म में नष्टानिष्ट हुए हैं ॥ भावार्थ । अष्टावक्रजी जगत् को असत्य रूप दिखलाते हैंहे जनक ! राजभोग और स्त्री, पुत्रादिक ये सब तो तुमको अनेक जन्मों में मिलते ही रहे हैं और नष्ट भी होते रहे हैं । क्योंकि पहले जन्मों में जो तुमको स्त्री- पुत्रादिक
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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