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________________ १५२ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० का निरूपण किया है । अब इस प्रकरण में विषयों की तृष्णा के त्याग का निरूपण करते हैं । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! काम शत्रु है । यह काम ही सम्पूर्ण अनर्थों का मूल है और बड़ा दुर्जय है आत्मपुराण में कहा है कामेन विजितो ब्रह्मा कामेन विजितो हरः । कामेन विजितो विष्णुः शक्रः कामेन निर्जितः ॥ १ ॥ इन्द्र कामदेव ही ने ब्रह्मा को जीता, विष्णु को जीता, को जीता, महादेव को जीता, अतएव सब अनर्थों का मूल कारण कामदेव ही है । धन के संग्रह और रक्षा करने में जो दुःख होता है, और उसके नाश होने में जो शोक होता है, उसका मुख्य कारण काम ही है । हे जनक ! काम का कारण जो धर्म है, उसको और सकाम कर्मों को तुम त्याग करो, क्योंकि ये सब जीवन्मुक्ति में प्रतिबन्धक हैं ।। १ ।। मूलम् । स्वप्नेन्द्र जालवत्पश्य दिनानि त्रीणि पञ्च वा । मित्रक्षेत्रधनागारदारदारयादिसम्पदः ॥ २ ॥ पदच्छेदः । स्वप्न, इन्द्रजालवत्, पश्य, दिनानि त्रीणि, पञ्च, वा, मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादिसम्पदः ॥ 1
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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