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________________ १४५ नवां प्रकरण । देनेवाला है। तीसरा गुरु व्यावहारिक विद्या का पढ़ानेवाला है। चौथा सत्सङ्ग गुरु है । विद्या-दाता हजारों अक्षरों को पढ़ाता है, पशु से मनुष्य बनाता है, फिर भी लोग उसके उपकार को नहीं मानते हैं। जो दो चार अक्षरों के मन्त्र को कान में फूंक देता है, उसी के पूरे पशु बन जाते है। उसके उपदेश से कोई संशय दूर नहीं होता है, बल्कि उल्टी भेद-बुद्धि उत्पन्न होती है। कोई विष्णु का मन्त्र देकर महादेव से विरोधकरा देता है, कोई विष्णु से विरोध कराता है, कोई देवी का पशु बना देता है। कनफुकवे गुरु तो आप ही भेदवाद-रूपी कीच में फंसे हैं और शिष्यों को भी फंसाते हैं। अपनी जीविका के लिये शिष्यों के घरों में भिखारियों की तरह मारे-मारे फिरते हैं। जैसे वे मर्ख हैं, वैसे उनके शिष्य भी मुर्ख हैं। क्योंकि जो सत् महात्मा संशयों का नाश करते हैं, उनकी वह सेवापूजा नहीं करते हैं । जो मूर्ख कन फुकवे गुरु संशयों में डालते हैं, उन्हीं की पूरी सेवा करते हैं। जब गुरु ही मोक्षमार्ग को नहीं जानते हैं, तब शिष्य कैसे जाने । शिष्यों के चित्तों में तो अनेक प्रकार के विषयों की कामनाएँ भरी हैं। उन कामनाओं की पूर्ति के लिये वे मन्त्र लेकर जपते हैं, और जपते जपते मर जाते हैं, परन्तु कामना किसी की भी पूरी नहीं होती है। इसी पर कबीरजी ने भी कहा है दोहा। गुरु लोभी, शिष्य लालची, दोनों खेलें दाँव । दोनों डूबे बापड़े, बैठ पथर की नाव ॥ १ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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