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________________ पहला प्रकरण । जड़भरतादिक खान-पहरान आदिकों को त्याग करके कहीं भी नहीं रहे हैं, किन्तु पत्थर और लकड़ी की तरह जड़ होकर संग से डरते हुए उदासीन हो करके रहे हैं । जबतक देह के साथ आत्मा का तादात्म्य-अध्यास बना है, तबतक तो नंगा रहना दुःख का और मूर्खता का ही कारण है। जब अध्यास नहीं रहेगा, तब इसको नंगे रहने से दुःख भी नहीं होगा। आत्मा के साक्षात्कार होने से, जब मन उस महान ब्रह्मानंद में डूब जाता है, तब शरीरादिकों के साथ अध्यास नहीं रहता है, और न विशेष करके संसार के पदार्थों का उस पुरुष को ज्ञान रहता है । मदिरा करके उन्मत्त को जैसे शरीर की और वस्त्रादिकों की खबर नहीं रहती है, वैसे ही जीवन्मुक्त ज्ञानी की वृत्ति केवल आत्माकार रहती है। उसको भी शरीरादिकों की खबर नहीं रहती है ऐसी अवस्था जीवन्मुक्त की लिखी हुई है। मुमुक्षु वैराग्यवान् की नहीं लिखी; क्योंकि उसको संसार के पदार्थों का ज्ञान ज्यों का त्यों बना रहता है। संसार के पदार्थों में दोष-दृष्टि और ग्लानि का नाम ही वैराग्य है, और खोटे पुरुषों के संग से डरकर महात्माओं का संग करनेवाला क्षमा, कोमलता, दया और सत्यभाषणादिक गुणों को अमृतवत् पान करने अर्थात् धारण करनेवाले का नाम वैराग्यवान् है और वही ज्ञान का अधिकारी है ॥ २॥ अष्टावक्रजी जनकजी के प्रति वैराग्य के स्वरूप को कहकर राजा के द्वितीय प्रश्न के उत्तर को कहते हैं मुलम् । न पृथिवी न जलं नाग्निर्न वायुद्यौं न वा भवान् । एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥३॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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