SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२ ) अपरोक्षानुभूतिः । भा.टी. जो ब्रह्मवृत्तिको जानते हैं और जानकर बढायें हैं वह सत्पुरुष धन्य और तीनों भुवनमें पूजनीय होय हैं ॥ १३१ ॥ येषां वृत्तिः समा वृद्धा परिपक्का च सा पुनः ॥ तेवैद्रह्मतां प्राप्ता नेतरेशब्दवादिनः ॥ १३२ ॥ सं. टी. एवं ब्रह्मवृत्तिपरान्स्तुत्वाऽधुना तेपां ब्रह्मप्राप्तिरूपं फलमाह येपामिति सुगमम् ॥ १३२ ॥ भा. टी. जिन पुरुषोंकी ब्रह्मवृत्ति अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त होयहै और मलकार पकजाय है उनकोही सर्व स्वरूप का लाभ होय है और जो केवल जिह्वाही से अहं ब्रह्म अब कहें हैं उनको ब्रह्मका लाभ किसी समयभी नहीं होयहै ॥ १३२ ॥ कुशलां ब्रह्मवार्त्तायां वृत्तिहीनाः सुरागिणः ॥ तेप्यज्ञानितया नूनं पुनरायांति यांति च ॥ १३३ ॥ सं. टी. तानेव शब्दवादिनो निंदति कुशलाइति स्पष्टम् ॥ १३३ ॥ भा. टी. जो पुरुष ब्रह्मवृत्ति करके हीनहोय हैं और ब्रह्मवेत्तापन प्रकाश करें हैं इसी प्रकार ब्रह्ममें, दिखावें हैं वह अज्ञान वश वारम्वार संसार में आवागमन करें हैं ॥ १३३ ॥ निमेषार्धं न तिष्ठति वृत्तिं ब्रह्ममयीं वि
SR No.034085
Book TitleAparokshanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Vidyaranyamuni
PublisherKhemraj Krushnadas
Publication Year1830
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy