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________________ (९०) अपरोक्षानुभूतिः । वासनया चित्तस्य स्तव्धीभावः कषायः क्षुब्धतेत्यर्थः स्पष्टमन्यत् ॥ १२८ ॥ भा. टी. समाधि साधन कालमें अनेक प्रकारके विन आनके बलसे निरोध करें हैं वह चिन्न यह हैं अनुसंन्धानराहित्य अर्थात् किसीप्रकार अनुसंधान नहीं रहना, आलस भोगलालसा, लय अर्थात निद्रा, तम अर्थात् कायकार्यका अविवेक, विशेष अर्थात् विषयानुराग, रसास्वाद अर्थात मैं बडा धन्यहूँ इसप्रकार आनन्दका अनुभव करना, शून्यता अर्थात् रागद्वेषादिकसे चित्तकी विकलता, इसप्रकार विघ्नोंके समूहको ब्रह्मवेत्ताओंको शनैःशनैः त्याग करना योग्य है ॥ १२७ ॥ १२८ ॥ - भाववृत्त्या हि भावत्वं शून्यवृत्त्या हि शून्यता ॥ ब्रह्मवृत्त्याहि पूर्णत्वं तथा पूर्णत्वमभ्यसेत् ॥ १२९ ॥ सं. टी. वृत्तिरेव, बंधमोक्षकारणमित्याह भावेति भाववृत्त्या घटाद्याकारवृच्या भावत्वं तन्मयत्वं भवतीति शेषः शून्यवृत्त्या अंभाववृत्त्या शून्यता जडतेत्यर्थः हीति लोकप्रसिद्धौ तथा ब्रह्माकारवृत्त्या पूर्णत्वं हीति विद्वत्प्रसिद्धौ ततः किमत आह पूर्णत्वमिति ॥ १२९ ॥ भा. टी. जिसके चित्तकी वृत्ति घटादि भाव पदार्थों में जाय है
SR No.034085
Book TitleAparokshanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Vidyaranyamuni
PublisherKhemraj Krushnadas
Publication Year1830
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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