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________________ संस्कृत टीका - भाषाटीकासहिता । ( ८३ ) भा. टी. दृष्टिको ज्ञानमय करके उस दृष्टिके द्वारा ब्रह्ममय जो जगत् को देखना है यही दृष्टि परम उदार मङ्गलकी देनेवाली है नासा के अग्रभागमें देखने को दृष्टि नहीं कहे हैं ॥ ११६ ॥ दृष्टिदर्शन दृश्यानां विरामो यत्रवाभवेत् ॥ दृष्टिस्तत्रैवकर्त्तव्या न नासाग्राक्लोकिनी ॥ ११७ ॥ सं. टी. ननु तथापि ब्रह्मणि वृत्तिप्रवृत्तिनिमित्तजात्याद्य भावादिंद्रियादिप्रत्यक्षविषयस्य जगतो ब्रह्मरूपत्वेन दर्शनं कथं स्यादित्याशंक्य स्वारस्यात्पक्षांवरेणाह दृष्टीति वा शब्दः पक्षांतरे दृष्टीत्यादिना श्रोत्रादिसर्व त्रिपुटीनामुपलक्षणं यत्र यस्मिन् ब्रह्मस्वरूपे दृष्ट्यादिसर्वत्रिपुटीनां विरामो लयो भवेत्तत्र तस्मिनेव प्रपंचातीते दृष्टिरंतःकरणवृत्तिः कर्तव्या न नासिकायावलोकिनीत्यर्थः ॥ ११७ ॥ भा. टी. और जिसमें दृष्टि दर्शन दृश्यका विराम होय है Hair ष्टि कहें हैं वहीदृष्टि करना योग्य है नासाके अग्रभाग में देखना मात्र रूप जो दृष्टि है सो योग्य नहीं है ॥ ११७ ॥ चित्तादिसर्वभावेषु ब्रह्मत्वेसर्व भावनात् ॥ निरोधः सर्ववृत्तीनां प्राणायामःसउच्यते ॥ ११८ ॥
SR No.034085
Book TitleAparokshanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Vidyaranyamuni
PublisherKhemraj Krushnadas
Publication Year1830
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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