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________________ (५४) अपरोक्षानुभूतिः। । सं. टी. ननु " यत्र हि द्वैतमिव भवति" इत्यादि श्रुत्यर्थदर्शनेनावस्थात्रये विदेहमोक्षायुक्तौ नतु जी. वन्मोक्षःइत्याशंक्याहःसर्वइति सौपि लौकिको वैदिक श्चेति शेपंस्पष्टम् अयं भावः अज्ञाननिवृत्तिरेवं जीवन्मुतिनतु द्वैतादर्शन मिति ॥६५॥। ___ भा. टी. लोककी जीवन्मोक्षअवस्था दिखाएँ हैं क्यों कि (“यत्र हि दैतमिव भवति") जिसमें ज्ञान होनेपर दैतकेसा व्यवहार किया जायहै वह जीवन्मोक्ष विदेह मोक्ष' सै विल. क्षण तीसरी अवस्था कहलावैहै तिस जीवन्मोक्ष अवस्थामें सब लोक परब्रह्मके नियमानुसार सब प्रकार लौकिक और वैदिक कार्य करै है ऐसाहै संसारी पुरुष तबभी अज्ञानवशसे कोईभी ब्रह्मको जाननेको समर्थ नहीं होयहै जैसे ययपि घट मृत्ति काही है तथापि मृत्तिका कहनेको समर्थ नहीं होयहै आशय यहहै कि लोक यह नहीं जाने है कि लोकव्यवहारकेही कारण दैत व्यवहार किया जायहै वस्तुतः अज्ञानकी निवृत्तिका नाम. ज्ञान है और लोकव्यवहारमेंभी अद्वैत व्यवहार करनेका नाम ज्ञान नहीं है ॥ ६५ ॥ कार्यकारणतानित्यमास्ते घटमृदोर्यथा ॥ तथैवश्रुतियुक्तिभ्यां प्रपंचब्रह्मणोरिह ॥६६॥ सं. टी. तत्रहेतुं सदृष्टांतमाह कार्यति “यथा सौम्यै
SR No.034085
Book TitleAparokshanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Vidyaranyamuni
PublisherKhemraj Krushnadas
Publication Year1830
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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