SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृतटीका-भाषाटीकासहिता। (४५) कृतवती स्वाधिकारिणः श्रावयामासेत्यर्थः । किमित्यत आह ब्रह्मैव सर्वनामान्याकाशादिदेहांतान संज्ञाविशेषान् च पुनर्विविधानि रूपाण्यवकाशादिद्विपदांतान् नानाविकारविशेषान् अपिशब्दश्वार्थे रूपाहणं गंधादिग्रहणस्याप्युपलक्षणं समग्राणि कर्माण्याकाशप्रदानादीनि स्नानशौचादीन् क्रियाविशेषानपि बिभर्ति रज्ज्वादिकमिव सादिप्रतिभासं दधात्यधिष्ठानदर्शनशून्यान् प्रति दर्शयतीत्यर्थः ॥१०॥ भा. टी. ब्रह्मही सम्पूर्ण प्रकारके नाम और नाना प्रकारके रूप धारणकरता है और नानाप्रकारके कर्म धारण करताहै । ऐसा साक्षात् श्रुति कहती है ॥ ५० ॥ सुवर्णाज्जायमानस्य सुवर्णत्वं च शाश्वतम्॥ ब्रह्मणो जायमानस्य ब्रह्मत्वं च तथा भवेत्॥५१॥ सं. टी. अत्र लोकप्रसिद्धं दृष्टांतमाह सुवर्णेति सुगमम् ॥ ५३॥ ___ भा. टी. जिसप्रकार सुवर्णसे कटक कुण्डलादिक बनाये जाते हैं जबतक कुण्डलादि आकार रहा तबलों रहा फिर गलानेसैं सुवर्णका सुवर्णही होजाता है इसी प्रकार यह ब्रह्मस उत्पन्न हुआ संसार जबलौं किसी आकारमें रहता है तबलौं रहता है अन्तमें आकर दूर होने पर ब्रह्मही होता है ॥५१॥
SR No.034085
Book TitleAparokshanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Vidyaranyamuni
PublisherKhemraj Krushnadas
Publication Year1830
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy