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________________ संस्कृत टीका - भाषाटीका सहिता | पूर्वावस्थाम परित्यज्यावस्थांतरप्राप्तिलक्षणविवर्तोपादान त्वमेवोक्तं नारंभोपादानत्वं नापि परिणामोपादानत्व मिति बोध्यं अन्यत् स्पष्टम् ॥ ४४ ॥ भा. टी. जिस समय रज्जुके स्वरूपका अज्ञान होय ( अर्थात् यह रज्जुहै जब ऐसा ज्ञान नहीं होय है ) तब रज्जुमें भान्ति होय है ( अर्थात् अज्ञानसे रज्जुको सर्प समझे है) इसी प्रकार जिससमयपर्य्यन्त आत्माका ज्ञान नहीं होय है तबतक अज्ञानवशसे आत्मा के विषय में पुरुष नाना प्रकारकी कल्पना करैहै ॥ ४४ ॥ ( ४१ ) उपादानं प्रपंचस्य ब्रह्मणोऽन्यन्न वि द्यते ॥ तस्मात्सर्वप्रपंचोयं ब्रह्मैवास्ति न चेतरत् ॥ ४५ ॥ सं. टी. अत्र हेतुं दर्शयन् पूर्वोक्तमुपसंहरति उपा दानमिति । यस्मात्प्रपंचस्याकाशादिदेहांतस्य जगद्विस्तारस्य ब्रह्मणो मायाशबला चैतन्यादन्यत्परमाणवो यद्वा प्रकृतिरुपादानं कारणविशेषो न विद्यत इति "तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः" इत्यादिश्रुतेः तस्माद्धेतोरिति स्पष्टमन्यत् ॥ ४५ ॥ भा. टी. नेमके सिवाय इस प्रपञ्चका उपादान कारण और कोई नहीं हो सके है इसकारण सम्पूर्ण प्रपञ्च ब्रह्मही है ( अर्थात सर्व संसार ब्रह्मस्वरूप है) और कुछ नहीं है ॥ ४५ ॥
SR No.034085
Book TitleAparokshanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankaracharya, Vidyaranyamuni
PublisherKhemraj Krushnadas
Publication Year1830
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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