SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६४ ) धारे भव थाय नही. ए क्षायकसम्यक्तनी खुबी छें. वली जेने सम्यक्तमोहनी गइ नथी, तेने क्षयोपशम सम्यक्त थाय छे. तेना उदयथी अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ जाय छे. सत्तामां मिथ्यात्व रहे छे. उदयमां रहेतुं नथी. ए समकितवालाने पण मुक्तिनो निश्चय थाय छे. पण क्षायकवालानी पेठे तद्भवे मुक्ति जवानो निर्धार नहि, ज्यारे वधारे विशुद्धता थाय अने क्षायकसम्यक्त पामे त्यारे मुक्ति जाय; पण क्षायकसम्यक्त पाम्या विना मुक्ति पामे नहि. क्षयोपसम सम्यक्त रहे तो छासठ सागरोपम सुधी रहे, वली सम्यक्त सहित श्रायुष्य पण देवलोकनुं बांधे अने देवता नारकी होय तो मनुष्यनुं ज बांधे, एवो ए सम्यक्तनो प्रभाव छे. दर्शनमोहनी टालवानां फल जाणीने जेम बने तेम एनो त्याग करवो अने ए त्रण दर्शनमोहनी ने पचीश चारित्रमोहनी ए सर्वे मलीने अठावीश मोहनी कर्मनी प्रकृति जाणवी. एनो सर्वथा त्याग थवाथी के - वलज्ञान पामे. ज्यां सुधी ए मोहनीकर्म छे त्यां सुधी पूर्ण गुण प्रगटे नही ने ए प्रकृतिओमां वर्त्तवाथी ज पाछां आकरां कर्म बंधाइने संसारमां जीव रोलाय छे. वास्ते एनो त्याग करवो, एने आधारे ज जीवने संसारमां भ्रमण छे. जीवने राग द्वेषनी प्रकृतिथी श्री लोकने विषे अपयश थाय छे. जे जे वस्तु धर्मपदमां निषेध करी छे, ते ते वस्तु आदरवाथी श्रा भवमां पण दुःख छे ने आवते भवे पण तेथी दुःख छे माटे समभावे मोहनीकर्म क्षय करवानो उद्यम करवाने तत्पर थj. वेदनकर्ममां सुखनुं वेदबुं ते शातावेदनी कर्म, दुःखनुं वेदवं ते अशा तावेदनी कर्म. जे जीव पूर्वे नीतिमार्गे चाल्या छे, सत्य वचन बोल्या छे, श्रने जेमणे दया पाली छे, चोरीनो त्याग कस्यो छे, परस्त्रीनो त्याग वा स्वस्त्रीनो पण त्याग कस्यो छे. कोइ जीवने दुःख न थाय एवी वर्त्तणुक करी छे, धननी तृष्णानो त्याग करी परोपकारमां तथा साचा देव गुरुनी भक्तिमां द्रव्य वापरयुं छे एवी पुण्य करणी करवाथी शातावेदनी कर्म बांध्युं छे तेना प्रभावे पोताने अनुकूल सुखना पदार्थ मले छे, एथी विप Scanned by CamScanner
SR No.034080
Book TitlePrashnottar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupchand Malukchand Sheth
PublisherJain Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1906
Total Pages299
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size135 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy