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________________ ( ६२ ) सर्व वस्तुनो त्याग करी हुं म्हारा आत्मधर्ममां वर्तु ने कंइक पोताना आत्मानुं साक्षात् ज्ञान प्रगट करूं. एवी दशा मिथ्यात्वमोहनी जवाथी थाय छे. हवे मिश्रमोहनी ते कंइक शद्ध देव गुरु धर्म उपरथी द्वेष खशेलो अने अशुद्ध देव गुरु धर्म उपरथी राग घटेलो. वली पद्गलभावने विषे संपूर्ण आसक्त हतो, तेमांथी मिथ्यात्वना पद्गल जवाथी आसक्तभाव श्रोछो थाय, तेथी पोतानो आत्मधर्म प्रगट करवानी कांइक इच्छा थाय. मिथ्यात्वपणे तो कुलधर्म करतो हतो, पण ते मिथ्यात्वमोहनी गइ ने मिश्रमोहनी थइ, तेना प्रभावे पोतानो धर्म प्रगट करवा सारु उद्यम करे. वली ए मिश्रमोहनीनो काल अंतर्महर्तनो छे. ते अंतर्महतं पण बे श्वासोश्वासथी. ते नव श्वासोश्वास सुधीनुं छे. एटले एवा सुंदर भाव आत्म हितकारी थाय पण ते भाव आवेलो पोताने जाणवो दुष्कर पडे छे, ए मिश्रमोहनी. ना पद्गल पण मलीन छे. तेथी खरूं तत्व ओलखी शकाय नहि तेथी ए पण टालवानो उद्यम करवानो छे. एटले त्यारे सम्यक्तमोहनी थाय. ते सम्यक्तमोहनीनु स्वरूप कहीए छीये. शुद्ध देव गुरु धर्म उपर राग प्रकट थाय, खोटा देव गुरु धर्म उपर राग रहे नही. आत्मतत्व प्रकट करवानो कामी थाय. गुरुमहाराजनी तथा उत्तम श्रावकोनी संगत सारी पेठे करे, तेमनी पासे धर्मोपदेश सांभले, देव गुरुनी सारी पेठे भक्ति करवाने तत्पर थाय. जीवादिक नवतत्त्व जे जीवतत्व, अजीवतत्व, पुण्यतत्व, पापतत्व, आश्रवतत्व, संवरतत्व, निर्जरातत्व, बंधतत्व अने मोक्षतत्व, ए नव तत्व जाणे, तेनी श्रद्धा जेम आगममां कही छे तेम जाणी यथार्थ करे. एy ज्ञान मेलववानी वृत्ति सारी पेठे राखे. केवल धर्ममय चित्त बनी जाय, संसारमा पड्यो छतो पण संसारी सुख ते दुःख रूप जाणे. इहां कोइ कहेशे जे सम्यक्तमोहनी तो मोहनी कर्मनो प्रभाव कह्यो छे, ने छोडवा योग्य कही छे, ने इहा तो तमे गुणवंतपणुं वर्णव्युं ते केम ? ते विषे जाणवू जे-ए सम्यक्तमोहनीना प्रभावे जीवादिक पदार्थनी यथार्थ श्रद्धा थाय, पण ए नवतत्व, विस्तारे सूक्ष्म ज्ञान तेमां बुद्धि मूंझाइ जाय, यथार्थ अ. Scanned by CamScanner
SR No.034080
Book TitlePrashnottar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupchand Malukchand Sheth
PublisherJain Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1906
Total Pages299
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size135 MB
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