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________________ ( ३७ ) देदिप्यमान स्फुटिक के कुम्भ में से झरते हुवे दूध जैसे श्वेत अमृत से निज को लम्बे समय से सिञ्चन होता हो ऐसा चितवन करना। इस मन्त्राधिराज के अभिधेय शुद्ध स्फूटिक जैसे निर्मल परमेष्टि अहर्त का मस्तक में ध्यान करना और ऐसे ध्यान के आवेश से "सोऽहं, सोऽहं" वारम्वार बोलने से निश्चय रूप से आत्मा की परमात्मा के साथ तन्मयता समझना । इस तरह तन्मयता हो जाने बाद अरागी, अद्वेषि, अमोही, सर्वदर्शी, देवताओं से पूजनीय ऐसे सच्चिदानन्द परमात्मा समव सरण में धर्मोपदेश करते हों ऐसी अवस्था का चिन्तवन करके आत्मा को परमात्मा के साथ अभिन्नता पूर्वक चिन्तवन करना चाहिये, जिससे ध्यानी पुरुष कर्म रहित होकर परमात्म पद पाता है । बुद्धिमान ध्यानी योगी पुरुष को चाहिये कि मंत्राधिप के उपर व नीचे रेफ सहित कला और बिन्दू से दबाया हुअा-अनाहत सहित सुवर्ण कमल के मध्य में बिराजित गाढय चन्द्र किरणों जैसा निर्मल आकाश से सञ्चरता हुवा दिशाओं को व्याप्त करता हो इस प्रकार चिन्तवन करना । मुख कमल में प्रवेश करता हवा, भ्रकूटी में भ्रमण करता हुवा, नेत्र पत्रों में स्फूरायमान, भाल मण्डल में स्थिर रूप निवास करता हवा, तालू के छिद्र में से अमृत रस भरता हो, चन्द्र के साथ स्पर्धा करता हवा ज्योतिष मण्डल में स्फुरायमान, आकाश मण्डल में सञ्चार करता हुवा मोक्ष लक्ष्मोके साथ में सम्मिलित सर्व अवयवादि से पूर्ण मन्त्राधिराज को कुम्भक से चिन्तवन करना चाहिये । जिसका विशेष स्पष्टी करण करते हैं कि ॥ ॥ जिस की आद्य में है और । ह।। जिसके अन्त में है । और बिन्दू सहित रेफ जिसके मध्य में अर्थात् ।। अहँ । यही परम तत्त्व है । और इसको जो जानते हैं वही तत्त्वज्ञ हैं। Scanned by CamScanner
SR No.034079
Book TitleNamaskar Mantrodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaychandravijay
PublisherSaujanya Seva Sangh
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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