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________________ ( ३५ ) मण्डल चिन्तवन करना और अमत समान जल से आकाश तल को पवित्र करके काया से उत्पन्न की हई रज और भस्म को धो डालना ऐसी क्रिया का नाम वारूणी धारणा है। पांचवी "तत्त्वभू” धारणा उसको कहते हैं कि शुद्ध बुद्धि वाला सप्तधातु रहित पूर्णचन्द्र समान निर्मल कान्तियुक्त सर्वज्ञ समान निजके आत्मा का स्मरण करे । बाद में सिंहासन पर आरूढ सर्व अतिशय से प्रभावित, सर्व कर्मो को क्षय करने वाला निज के निराकार आत्मा का स्मरण करे। इसीका नाम तत्त्वभू धारणा है। इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान के अभ्यास वाला योगी मोक्ष सुख प्राप्त करता है । पिण्डस्थ ध्यान का नित्यप्रति अभ्यास करने वाले को दुष्ट विद्या, मन्त्र, यन्त्र,यादि शक्तियां हानि नहीं पहुंचा सकती और शाकिनी या हलके वर्ण की योगिनियां पिशाच आदि ऐसे ध्यानी महापुरुष के तेज को सहन नहीं कर सकते । दुष्ट, हाथी, सिंह, सर्प, अष्टापद आदि जिनमें मारने की इच्छा रहा करती है वह भी ऐसे योगियों को देख स्थम्भित हो जाते हैं। इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान के महात्म्य का वर्णन संक्षेप से किया गया । .. पदस्थ ध्येय स्वरूप पवित्र पदों का पालम्बन लेकर ध्यान किया जाता है उसी को शास्त्र वेत्ताओं ने पदस्थ ध्यान बताया है। और इसका स्वरूप बताते हुए कहा है कि नाभि कमल के ऊपर सोलह पत्र वाले कमल के पत्र में प्रत्येक पत्र ऊपर भ्रमण करती हई स्वर की पंक्ति का चिन्तवन करना। हृदय में किये हुए चौबीस पत्रवाले और कणिका सहित कमल में पच्चीस वर्ण अनुक्रम से अर्थात् क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, Scanned by CamScanner
SR No.034079
Book TitleNamaskar Mantrodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaychandravijay
PublisherSaujanya Seva Sangh
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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