SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपरांत, महामेघवाहन राजा खारवेल के हाथीगुफा के जैन शिलालेख में तथा प्राचीन पदचिह्न में भी प्राचीन श्रीवत्स के बहुत उदाहरण देखने को मिलते है। 2.4 अर्वाचीन श्रीवत्स: पांचवीं या नवीं सदी से ले कर जिन प्रतिमा के वक्षस्थल पर असमकोण चतुर्भुज या सरल भाषा में सक्करपारा . जैसा आकार वाला श्रीवत्स देख सकते है। इस स्वरुप में अचानक क्यों बदलाव आ गया वह संशोधन का विषय है। लेकिन, तब से ले कर आज तक अर्वाचीन श्रीवत्स ही होते आयें हैं। उपरांत, उसके स्वरुप में भी सामान्य बदलाव होता रहा है। छठवीं से दसवीं सदी तक की प्रतिमाओं में छाती के भाग पर थोड़ा सा घाव कर के श्रीवत्स को थोडा उभार दिया जाता था। लगभग 31' की प्रतिमा के लिए सोचें तो 11 से 13वीं सदी में सामान्य 2-3 इंच तक उभारा गया श्रीवत्स दिखाई देता है। इस समय में शिल्पकारोंने उसे अंलकृत बनाया। उसमें कमलपत्र और परागपुष्प या मोतीओं की भी आकृति बनती थी। 15-16वीं सदी में और बाद में बनाई गई प्रतिमाओं में श्रीवत्स एक-सवा इंच जितना बड़ा उभारने की शुरूआत हुई। लेकिन वास्तव में उसका इतना ज्यादा उभार सोचनीय बाबत है। हमारे यहां तो उसके पर चांदी की परत चढ़ाके उसे ज्यादा उभारने की कोशिश की जाती है वो कितना उचित माना जाए वो विद्धान समझ पाएंगे! वर्तमान में बनाई गई जिनप्रतिमाओं में तथा अष्टमंगल की पाटलीओं में अर्वाचीन श्रीवत्स देखे जाते है। 2.5 श्रीवत्स मान्यता: श्री श्वे.मू.पू. जैन संघ में जिनप्रतिमाओं के द्दष्टांत और शास्त्रपाठों के आधार पर प्राचीन-अर्वाचीन, दोनों प्रकार के श्रीवत्स मान्य
SR No.034073
Book TitleAshtmangal Aishwarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysundarsuri, Saumyaratnavijay
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year2016
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy