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________________ १४ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) प्रश्नकर्ता : ये सब अंतराय डाले हुए हैं, तो उसका उपाय क्या है? दादाश्री : जो हो गया, वह अंतराय का फल आया है। उस अंतराय को तो भुगतना ही पड़ेगा लेकिन नए नहीं डालने चाहिए। प्रज्ञा और दिव्यचक्षु प्रश्नकर्ता : हम सभी को आपके द्वारा प्रदान किए गए दिव्यचक्षु से हम में उद्भव होने वाले क्रोध-मान-माया-लोभ व अब्रह्मचर्य के परिणाम दृष्टिगोचर होते रहते हैं। क्या वह दिव्यचक्षु ही प्रज्ञाशक्ति है ? दादाश्री : प्रज्ञाशक्ति से ही यह दिखाई देता है। जबकि दिव्यचक्षु तो एक ही काम करते हैं कि औरों में शुद्धात्मा देखने का। बाकी का यह सब क्रोध-मान-माया-लोभ, अब्रह्मचर्य के परिणाम वगैरह सभी अंदर दिखाई देते हैं, वह सब प्रज्ञाशक्ति का काम है। जब तक संसार के परिणामों का निकाल करना बाकी है, तब तक यह प्रज्ञा काम करती है। दिव्यचक्षु तो बस एक ही काम करते हैं। ये चमड़े के चक्षु रिलेटिव को दिखाते हैं और दिव्यचक्षु रियल को दिखाते हैं। दिव्यचक्षु अन्य कोई भी काम नहीं करते। अज्ञानी को कौन सचेत करता है? प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा होता है, हमने कुछ खराब काम किया हो न, तो हमें ऐसा लगता है कि 'ऐसा नहीं होना चाहिए'। यह किसे होता है ? अहंकार को होता है या वास्तव में आत्मा को होता है? दादाश्री : 'ऐसा नहीं होना चाहिए', वह आत्मा को नहीं होता। वह, अंदर यह जो प्रज्ञाशक्ति है न, उसे होता है यानी कि अभिप्राय बदल गया कि 'ऐसा नहीं होना चाहिए'। यह अहंकार कहता है, 'होना चाहिए' और यह प्रज्ञा कहती है 'नहीं होना चाहिए'। दोनों के अभिप्राय अलग-अलग हैं। यह पूर्व में चला और यह पश्चिम में चला। प्रश्नकर्ता : अब, जिसने ज्ञान नहीं लिया है, उसे भी ऐसा लगता
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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