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________________ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) हो जाती है। वर्ना अज्ञाशक्ति तो जीवमात्र में होती ही है यानी कि जब 'मैं' और 'मूर्ति' दोनों एक हो जाएँ, तब उसे अज्ञाशक्ति कहते हैं। संसार खड़ा करने वाली अज्ञाशक्ति है। वह संसार के बाहर निकलने नहीं देती। प्रज्ञाशक्ति उसे संसार में रहने नहीं देती। मार-ठोककर, खींचकर, यों बाँधकर मोक्ष में ले जाती है। अतः यह जो शक्ति उत्पन्न हुई है, वह काम करती रहती है। उसमें 'हमें' दखल नहीं करनी है बीच में। अपने आप काम हो ही रहा है, सहज रूप से काम हो रहा है। ज्ञानीपुरुष जब इगोइज़म निकाल देते हैं, उसके बाद प्रज्ञा उत्पन्न होती है। इगोइज़म और ममता, वे अज्ञाशक्ति की देख-भाल में हैं। जब प्रज्ञा उत्पन्न होती है तब अज्ञा नाम की शक्ति अपना सबकुछ समेटकर, झाड़-बुहारकर जाने लगती है! जैसे कांग्रेस गवर्मेन्ट के आने पर सभी अंग्रेज चले गए थे न! भगवान ने क्या कहा है कि बंध (बंधन) किसकी वजह से है? अज्ञा की वजह से बंध है। यह संसारबंध अज्ञा से हो रहा है। अज्ञा से पाप-पुण्य की रचना होती है। अज्ञा, और उसका प्रतिपक्षी शब्द है मुक्ति, वह प्रज्ञा से होती है। वह प्रज्ञा निरंतर 'आपको' सावधान करती है। पहले वह नहीं थी। पहले अज्ञा थी। यह जो अज्ञा है वह खुद उल्टा ही उल्टा लपेटती रहती है। अज्ञा से यह संसार खड़ा हो गया, प्रज्ञा से संसार का नाश हो जाता है। अज्ञा से अहंकार है। निअहंकारी होने के बाद प्रज्ञा उत्पन्न होती है। 'मैं शुद्धात्मा हूँ', उसका लक्ष्य बैठने के बाद प्रज्ञाशक्ति उत्पन्न होती है। __ अब अज्ञा में क्या होता है कि 'यह मैंने किया, मैंने दुःख भोगा, उसने किया, उसने गालियाँ दी मुझे'। प्रज्ञा क्या कहती है कि 'मैं कर्ता नहीं हूँ, मैं भोक्ता नहीं हूँ, मैं ज्ञाता हूँ'। सामने वाले ने मुझे गालियाँ दीं तो वह निमित्त है बेचारा, वह भी कर्ता नहीं है। वह सब से अंतिम प्रकार का ज्ञान है। सामने वाला कर्ता नहीं दिखाई दे और खुद भी कर्ता नहीं है, ऐसा भान रहा तो वह मोक्ष का सब से अंतिम साधन है। प्रश्नकर्ता : राग-द्वेष को राग-द्वेष जानना, क्या उसे प्रज्ञा का उपयोग कहा जाएगा? प्रज्ञा उस समय उपयोग में रहती है?
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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