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________________ आप चंदूभाई, सुन रहे हैं, अंबालाल बोल रहे हैं, ज्ञानी भोग रहे हैं और 'हम' जानते हैं। जो खाता है, वह 'आप' नहीं हो, हाथ खिलाता है। दांत चबाते हैं, अंदर बावा जी वेदता है। कड़वे-मीठे को वेदने वाला बावा जी और जानने वाला 'मैं खुद'। ज्ञानी को भी, जब तक बावा है तभी तक वेदकता है। मूल पुरुष तो वह है जो केवलज्ञान स्वरूप को जानता है। जो स्थूल है, वह मंगलदास है, उसके बाद जो सूक्ष्म भाग और कारण भाग रहा, वे दोनों बावा के हैं और 'मैं' शुद्धात्मा है। इतने में पूरा अक्रम विज्ञान आ गया! अब बावा का निकाल करना है समभाव से। ज्ञान मिलने के बाद शुद्धात्मा के तौर पर जुदा हो गए अब जैसेजैसे गर्वरस चखना बंद होता जाएगा वैसे-वैसे मार्क्स बढ़ेंगे। गर्वरस से मार्क्स कम हो जाते हैं क्योंकि उल्टी करने की चीज़ को खा गए! बावा का स्टेशन बहुत लंबा है लेकिन है एक ही स्टेशन। इस प्रकार तीन ही स्टेशन हैं, मैं, बावा और मंगलदास लेकिन फाटक को छुआ कि हो गया 'खुद' पूर्ण भगवान। स्त्रियों में मोह अधिक होता है, वह मोह बावा का है उसे 'हमें' जानना है कि इतना मोह है और ज्ञानी को बता देना। दादाश्री कहते हैं, 'हमारा भी बावा है न!' जब तक चार डिग्री की कमी है तब तक 'मैं' शुद्ध नहीं होगा इसलिए ऐसा कहना पड़ता है कि 'मैं भगवान से जुदा हूँ। 'मैं भगवान हूँ', ऐसा नहीं कह सकते। स्त्रियों का बावीपना नहीं छूटता। उसके लिए स्त्रियों को बावीपना नहीं होने देना चाहिए। बावी को बावा पद में ही रखना चाहिए, नहीं तो वापस स्त्रीपना आ जाएगा। स्त्री बावा तब खत्म हो जाएगा। अपने बावा से हमें कह देना है कि 'जीवन इतना सुंदर जीओ, अगरबत्ती जैसा ताकि खुद जलकर दूसरों को सुख दो! नहीं तो जिंदगी बेकार ही गई समझो'। दादाश्री का आत्मज्ञान मिलने के बाद और कुछ भी करना बाकी नहीं रहता। आत्मा तो शुद्ध ही है। जैसे-जैसे बावा जी शुद्ध होते जाएँगे 69
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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