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________________ निदिध्यासन, वाणी का निदिध्यासन, ये सभी एक साथ मिलकर निरालंब होने में मदद करते हैं। मूल स्वरूप दादा भगवान हैं, उसका अनुभव करने वाले उनसे अलग हैं न? मूल स्वरूप को देखने वाले जुदा ही हैं न अभी? अभी इस शुद्धात्मा स्वरूप को देखने वाली प्रज्ञा है। जब तक केवलज्ञान समझ में है, तब तक प्रज्ञा बाहर रहती है और जब केवलज्ञान ज्ञान में हो तब प्रज्ञा फिट हो जाती है। उसके बाद देखने वाला अलग नहीं रहता। निरालंब दशा हो गई! भगवान दादा के वश में आ गए अर्थात् निरालंब आत्म स्वरूप भगवान वश में आ गए। महात्माओं को अभ्युदय और आनुषांगिक दोनों फल मिलते हैं। अभ्युदय अर्थात् संसार में ज़बरदस्त अभिवृद्धि और आनुषांगिक जो मोक्ष फल सहित होता है। बात को समझना ही है। कौन सी बात? एक विनाशी वस्तु और विनाशी के सगे-संबंधी, सभी विनाशी हैं और दूसरा निरालंब है वह 'मैं' है और उस पर कोई दुःख नहीं आता। निरालंब की स्थिति प्राप्त करने की जल्दबाज़ी हो तो सभी में 'मैं' 'मैं' देखते-देखते चलना चाहिए। 'मैं ही' 'मैं ही' जुबान पर, मन में और चित्त में रखना चाहिए। हमें अपने आपको टटोलना है कि हम कहाँ-कहाँ किस-किस प्रकार से अवलंबित हैं ? अंत में वहाँ से आत्मा की निरालंब दशा तक जाना है। चाहे कैसी भी मुश्किलें आएँ, उस समय 'दादा दादा' करें या फिर दादा का निदिध्यासन करें तो भी बेड़ा पार हो जाएगा। शुद्धात्मा शब्द का आधार बीच में नहीं छोड़ा जा सकता। वह कब छूटेगा? सभी फाइलें पूरी हो जाएँगी, तब।। महावीर भगवान जैसे शुद्धात्मा थे, वैसे ही हम शुद्धात्मा हैं। दादाश्री कहते हैं कि निरालंब तो सिर्फ हम अकेले ही हैं। चौदहवें 56
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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