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________________ [७] सब से अंतिम विज्ञान - 'मैं, बावा और मंगलदास' ४२९ दादाश्री : तब तक 'मैं' ज्ञान स्वरूप हूँ लेकिन रियली विज्ञान स्वरूप हूँ। प्रश्नकर्ता : अब ज्ञान स्वरूप तो उसे कहते हैं कि जब बोल निकल रहे हों यानी कि वाणी निकल रही हो, तब (वह जाने कि) 'मैं' कहाँ पर है? दादाश्री : तब तक 'मैं' बावा जी के रूप में है। प्रश्नकर्ता : तब मंगलदास तो एक तरफ ही रह जाता है। दादाश्री : हाँ! मंगलदास में तो कुछ भी बदलाव नहीं होता। नामधारी है। प्रश्नकर्ता : हं! नामधारी है और बावा की समझ बढ़ती जाती है। दादाश्री : बढ़ती जाती है। ये सब महात्मा हमेशा बावा ही कहलाएँगे क्योंकि ये खुद के रिलेटिव नाम को स्वीकार नहीं करते और रियल में बावा हैं। प्रश्नकर्ता : अच्छा! रिलेटिव छूट गया और वह बावा स्वरूपी हो गया। वह बावा स्वरूप बढ़ते-बढ़ते रियल हो जाता है ? दादाश्री : रियल हो जाता है। खुद को समझ में आता जाता है धीरे-धीरे। मंगलदास का पद छूट ही गया है। अब 'मैं' और बावा बचे हैं। प्रश्नकर्ता : अब 'मैं' और बावा! तो क्या 'मैं' बावा को ज्ञान बढ़ाने में हेल्प करता है? क्या ऐसा होता है? दादाश्री : नहीं। (केवलज्ञान स्वरूप आत्मा केवल प्रकाशक ही प्रश्नकर्ता : तो बावा का ज्ञान किस प्रकार से बढ़ता है ?
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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