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________________ ३७२ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) अंत में छूटे ज्ञानी का अवलंबन प्रश्नकर्ता : जब तक एब्सल्यूट नहीं हो जाते, क्या तब तक ज्ञानी का आधार लेना पड़ेगा? दादाश्री : हाँ, शुद्धात्मा का आधार, दादा का आधार। समुद्र में बेटे को यों हाथ में उठा रखा हो, वह बच्चा नीचे यों पैर हिलाकर देखता है कि पैर तले तक पहँच रहे हैं या नहीं! वह देखता तो है लेकिन अगर नहीं पहुँचते तो वापस हम से चिपट जाता है लेकिन जब पैर नीचे लग जाएँ तो हमें हटाकर छोड़ देता है। हमें धीरे-धीरे छोड़ने लगे तो क्या हम नहीं समझ जाएँगे कि, 'अरे इसके पैर नीचे तक पहुंच गए हैं'। पैर पहुँच जाएँगे तो छोड़ नहीं देगा? छोड़ देगा! उसके पैर नीचे लगने चाहिए। उसी प्रकार आप तभी तक मुझसे चिपटे हुए हो न! जब आपके पैर नीचे तक पहुँच जाएँगे तो आपको मुझे छोड़ देना है। इस अवलंबन को भी छोड़ देना है। शब्दों का अवलंबन कब तक रखना हैं ? आपके पैर नीचे तक न लग जाएँ, तब तक। आप खुद निरालंब हो जाओगे तब यह छूट जाएगा। अपने आप ही छूट जाएगा। तब तक दादा के अवलंबन की ज़रूरत है, शुद्धात्मा के अवलंबन की ज़रूरत है। दादा के ही पीछे घूमते रहो, वे जहाँ जाएँ, वहाँ। यदि अवकाश दें तो। अवकाश कौन देगा? आपके उदयकर्म आपको अवकाश देंगे तो दादा के पीछे घूमते रहना और अगर अवकाश नहीं दें तो ऐसा तय करो कि कब मुझे अवकाश प्राप्त होगा? व्यवहार व निश्चय के आलंबन प्रश्नकर्ता : हम सभी में जरा-जरा सी मूर्छा रह जाती है। अभी तो सभी अवलंबन हैं न। दादाश्री : ऐसा करते-करते कम होते जाएँगे। पहले जो अवलंबन थे, कि अंदर वरीज़ हुई कि चल सिनेमा देखने चलें तो अब दूसरा अवलंबन पकड़ा। उससे अवलंबन बढ़ते जाते हैं बल्कि। अब अवलंबन घटते जाएँगे।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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