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________________ एक हो जाते हैं तब क्रोध-मान-माया-लोभ कहलाते हैं और दोनों जुदा रहें तो नहीं कहलाते। बाहर क्रोध हो रहा हो लेकिन अंदर ऐसा लगता है कि 'यह गलत है, ऐसा नहीं होना चाहिए' तो आज का अभिप्राय उससे अलग रहा इसलिए फिर हिंसकभाव नहीं रहता। अतः उसे क्रोध नहीं कहते। जब से आत्मा की प्रतीति बैठती है तभी से प्रज्ञा शुरू हो जाती महात्माओं को जो ज्ञान मिला है, वह अगले जन्म का पराक्रम बनेगा! दादाश्री का जो पराक्रम हैं वह गतज्ञान पराक्रम है। पराक्रम कब कहलाता है कि जब वाणी पाताल में से निकले तब! वे जो कुछ कहते हैं उसी से शास्त्र रचे जाते हैं! [5.1] ज्ञान-दर्शन 'सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र्याणि मोक्षमार्ग।' रत्नत्रय से मोक्ष। परमार्थ ज्ञान अर्थात् आत्मा का ज्ञान। वह ज्ञान उसे श्रुतज्ञान से, पढ़ने से या सुनने से हुआ होता है लेकिन उसके प्राप्त होने के बाद उसे आत्मा की प्रतीति बैठती है, आत्मा दर्शन में आता है। उसके बाद चारित्र में आता है और मोक्ष हो जाता है। सम्यक् दर्शन अर्थात् भ्रांतिक दर्शन का अभाव! दृष्टि पलटे तो दर्शन व विनाशी चीज़ों में से श्रद्धा उठकर और सनातन वस्तु पर अटूट श्रद्धा बैठना, उसे कहते हैं सम्यक् दर्शन । दर्शन और ज्ञान होने के बाद चारित्र में आता है। राग-द्वेष रहित चारित्र, उसे कहते हैं सम्यक् चारित्र । अज्ञान और अदर्शन का फल क्या है ? कषाय और ज्ञान व दर्शन का फल क्या है ? निरंतर 'समाधि'। जिसे सम्यक् दर्शन हो जाता है, उसे समकिती कहा जाता है। इसमें उसकी दृष्टि बदली है। सम्यक् दर्शन हुआ है लेकिन सम्यक् ज्ञान नहीं हुआ है। समकित होने के बाद में जो अनुभव होते हैं, वह सारा ज्ञान है। उसके बाद वह चारित्र में आता है। क्या श्रद्धा आत्मा का गुण है ? नहीं। श्रद्धा, वह मन और बुद्धि 44
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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