SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [६] निरालंब ३६३ करोड़ों संयोग हैं। सिर्फ स्त्री ही नहीं, सब को पार कर लिया है। सिर्फ पाँच-सात संयोग बचे हैं। लेकिन फिर भी वहीं से निरालंब कहलाने लगता है, पाँच-सात संयोग हों फिर भी! प्रश्नकर्ता : अर्थात् कुछ हद तक की निरालंब स्थिति प्राप्त हो जाती है? दादाश्री : निरालंब होने पर ही वह खुद अपने आपको देख सकता है। देख सकना, शब्दरूपी नहीं है। शब्द तो अवलंबन है। प्रश्नकर्ता : उसे खुद को पता चलता है कि वह खुद अवलंबनों की पकड़ में है? दादाश्री : सभी कुछ पता चलता है। प्रश्नकर्ता : तो उससे छूटने के लिए क्या उपाय है? दादाश्री : कड़वे ज़हर जैसा लगना चाहिए वह । क्या पता नहीं चलेगा कि यह मीठा लग रहा है और यह कड़वा लग रहा है? प्रश्नकर्ता : अर्थात् जहाँ-जहाँ मीठा लगता है अथवा कड़वा लगता है तो अभी तक वे अवलंबन पड़े हुए हैं। दादाश्री : संयोग मात्र अवलंबन है। प्रश्नकर्ता : लेकिन संयोग तो आपको भी मिलते हैं फिर भी आपकी स्थिति निरालंब है, वह किस प्रकार से? दादाश्री : हमें तो संयोगों की ज़रूरत नहीं हैं और बाकी ये जो सब मिलते हैं उनका हम निकाल कर देते हैं। प्रश्नकर्ता : मतलब? क्या आप ऐसा कहना चाहते हैं कि अभी जो संयोग मिलते हैं, वे पहले के किसी अवलंबन का परिणाम हैं ? दादाश्री : इच्छाओं का परिणाम हैं।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy