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________________ ३५४ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) जाना। एक तरफ निरावरण और दूसरी तरफ निरालंब दोनों साथ में होता जाता है। अवलंबन वाला आत्मा मिला, वह बहुत बड़ी बात है क्योंकि आत्मा क्या है और क्या नहीं, वह सब छूट गया। सम्यक्त्व मोहनीय छूट गया अर्थात् क्षायक समकित हो गया अतः सर्वस्व प्रकार से मोह छूट गया। अब बचा चारित्रमोह। निरालंब आत्मा को जाने बिना चारित्रमोह नहीं जाएगा। शुद्धात्मा में आ गया अर्थात् उसे ऐसा कहा जाएगा कि मोक्ष के दरवाज़े में आ गया और अब जरा-जरा सा वह निरालंब आत्मा प्राप्त हुआ है, वह चारित्र उत्पन्न हुआ है। प्रश्नकर्ता : एक-दो जन्मों में हो जाएँगे न निरालंब? दादाश्री : हो जाओगे न! निरालंब की प्राप्ति के लिए ज़रूरत है इन सब की अभी मैं निरालंब स्थिति में हूँ इसके बावजूद अवलंबन भी हैं और निरालंब भी है। निरालंब स्थिति को मैं अनुभव कर सकता हूँ। प्रश्नकर्ता : आपने कहा कि 'मेरे अवलंबन भी हैं और मैं निरालंब भी हूँ'। तो आपको किस चीज़ का अवलंबन है ? दादाश्री : आप सभी का। प्रश्नकर्ता : देह का भी अवलंबन है न दादा? दादाश्री : देह का तो खास अवलंबन नहीं है। जितना आपका अवलंबन है उतना इस देह का नहीं है क्योंकि मेरा ध्येय यह है कि मेरा जो यह सुख है वह इन लोगों को कैसे प्राप्त हो और किस प्रकार से जल्दी प्रकट हो जाए। देह का तो कोई अवलंबन नहीं है, देह तो पड़ोसी की तरह, फर्स्ट नेबरर की तरह है। उसका टाइटल मैंने फाड़ दिया है यानी कि मैं मन का मालिक नहीं हूँ, इस देह का मालिक नहीं हूँ और वाणी का भी मैं मालिक नहीं हूँ।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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