SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४६ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) स्टेज। अवलंबन ही परतंत्रता है। 'वे हैं तो हम हैं, हमें उन्हीं के आधार पर जीना है', इसे अवलंबन कहते हैं। अवलंबन नहीं होना चाहिए, और अगर है तो भी कुछ समय के लिए ही होना चाहिए। कोई हम से कहे कि भाई, इतने समय में यह खत्म हो जाएगा। यह अवलंबन, वह कब तक? कि अभी अगर यहाँ से स्टेशन तक जाना हो तो उतना ही रास्ता चलना पड़ेगा। अतः हम चलेंगे, हर्ज नहीं है, तो आपके लिए यह शुद्धात्मा आलंबन है तो अब निरालंब होना है। बाकी, जब तक संपूर्ण निरालंब नहीं हो जाते तब तक कृष्ण भगवान का मार्ग नहीं समझे हैं, महावीर का मार्ग नहीं जाना है। कहाँ वह वीतरागों का विज्ञान और कहाँ जीवन की ये सारी कलाएँ! इन लोगों के जीवन अवलंबित नहीं हैं, परावलंबी हैं। अवलंबन वाला जीवन तो अच्छा कहा जाएगा, यह तो परावलंबी जीवन है। आपने देखा है कभी ऐसा परावलंबी जीवन? प्रश्नकर्ता : दुनिया में बाहर सारा परावलंबी जीवन ही है। औरों के आधार पर जीवन बिताते हैं। दादाश्री : लेकिन क्या आपने देखा है कभी? प्रश्नकर्ता : आपके पास आने से पहले उसी जीवन में थे। दादाश्री : तो क्या बहुत मज़ा आता था? प्रश्नकर्ता : भरपूर आर्तध्यान और रौद्रध्यान रहता था। दादाश्री : जब आर्तध्यान और रौद्रध्यान बंद हो जाएँगे तब कहा जाएगा कि उसका परावलंबन छूट गया। परावलंबन के बाद अब सम्यक् अवलंबन है। सम्यक्, जो कि कुछ समय बाद खुद अपने आप ही खत्म हो जाएगा और निरालंब हो जाओगे। जीवन अवलंबन रहित होना चाहिए, निरालंब जीवन । ये तो कहेंगे, बिस्तर होता है तभी नींद आती है, हवा होती है तभी नींद आती है, ऐसा कोई अवलंबन नहीं होना चाहिए, 'नींद को आना हो तो आए, नहीं तो
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy