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________________ [६] निरालंब ३३५ प्रश्नकर्ता : और निरंतर आनंद में रहे! दादाश्री : आनंद में रहने की ज़रूरत नहीं है। उसकी जो ज्ञातादृष्टापन की खुराक है न, उस खुराक का फल ही आनंद है, निरंतर आनंद। ___ मैं, आत्मा और बैठक प्रश्नकर्ता : यह सर्वस्व अर्पणता ही है न दादा। क्या बाकी बचा? दादा के अलावा मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए। अब दादा का ही अवलंबन है, अन्य कुछ है ही नहीं। दादाश्री : तो आपका जो कुछ बाकी है, वह पूर्ण हो जाएगा लेकिन गिन्नी की ज़रूरत तो है न? प्रश्नकर्ता : नहीं, वह नहीं है। दादाश्री : तो अब काम हो जाएगा। प्रश्न र्ता : रात को दो-तीन बजे उठ जाता हूँ, दादा को पकड़कर बैठ जाता हूँ। दादाश्री : वह सब है लेकिन यह जो है न, यह आपका और यह मेरा, उस भेद को खत्म करने के लिए घर पर मैंने आपसे कहा था कि 'इतने बेटी को दे दो, बाकी सब मंदिर में दे दो न!' आपके सिर पर कुछ भी नहीं, ऐसा कर दो। टैक्स भी नहीं भरना होगा आपको। प्रश्नकर्ता : ओहोहो! अब हर्ज नहीं है, समझ गया। दादाश्री : मेरी तरह रहो। मुझे पैसों की ज़रूरत हो तब मैं कहता हूँ, 'नीरू बहन मुझे दीजिए'। आपको ज़रूरत भी किसलिए है ? सबकुछ देने वाले लोग हैं ही साथ में। उस दिन जो कहा था वह इसीलिए कहा था लेकिन आप उस मूल आशय को पूरी तरह से समझ नहीं पाए न ! प्रश्नकर्ता : लेकिन समझ तो गया दादा लेकिन दुनिया में मेरा और कोई नहीं है। अब देखिए, यह उम्र हो रही है...
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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