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________________ [५.२] चारित्र २८७ दादाश्री : होम डिपार्टमेन्ट में रहना, उसी को कहते हैं निश्चय चारित्र। फॉरेन में नहीं आना उसी को कहते हैं चारित्र। प्रश्नकर्ता : आत्मा में जो स्थिरता है, वही चारित्र है ? दादाश्री : स्थिरता तो आत्मा का गुण है लेकिन चारित्र क्या है? यह जो सब चल रहा है, उसे देखना और जानना, उसे कहते हैं चारित्र। यानी देखना और जानना ही, और परमानंद में रहना, उसी को चारित्र कहते हैं। वह अंतिम चारित्र कहलाता है। देखना और जानना, ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी - ये तीनों उसमें खुद में ही हैं। आत्मा में स्थिरता को चारित्र कहा गया है लेकिन वह क्रमिक मार्ग का चारित्र है। अपना चारित्र तो ज्ञाता-दृष्टा में रहना, वही चारित्र है। स्थिरता तो आ ही चुकी है न! लक्ष बैठ चुका है तो स्थिरता तो आ ही चुकी है न! जितना ज्ञाता-दृष्टा रहा उतना ही चारित्र कहा जाएगा। कोई गालियाँ दें और उसे देखता व जानता रहे। मन में खराब विचार आएँ और उन्हें देखता और जानता रहे। असर न हो, एकाकार नहीं हो, देखता और जानता रहे, वही चारित्र है। जबकि क्रमिक मार्ग में आत्मा में स्थिर होना, वही चारित्र है। वह चारित्र, अंश चारित्र कहलाता है। धीरे-धीरे जब सर्वांश हो जाता है उसके बाद ज्ञाता-दृष्टा बनता है। तब तक उनका ज्ञाता-दृष्टा (पद) नहीं आता। स्थिरता रहती है। वास्तविक चारित्र अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा भाव। ज्ञाता जब ज्ञाता भाव में आता है तो वह आत्मचारित्र कहलाता है। क्रमिक में व्यवहार चारित्र से निश्चय चारित्र में प्रश्नकर्ता : निश्चय चारित्र के लिए व्यवहार चारित्र का होना बहुत महत्वपूर्ण है न? अभी वह कोई स्टेप है क्या? वह होगा तभी... दादाश्री : यह जो ज्ञान मिला है न, वह अक्रम विज्ञान है, अतः व्यवहार चारित्र की हमें यहाँ पर ज़रूरत नहीं है। वर्ना क्रमिक ज्ञान में व्यवहार चारित्र हो तभी निश्चय चारित्र प्राप्त हो सकता है। व्यवहार चारित्र करते-करते तो यह कितने ही जन्मों तक भटक जाता है !
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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