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________________ [५.१] ज्ञान-दर्शन २७९ दादाश्री : पुस्तकों से जो ज्ञान मिलता है, वह ज्ञान रिलेटिव ज्ञान है। उससे चाहे कितना भी दर्शन में आ जाए तो भी रिलेटिव ज्ञान है। आत्मा का, शब्दों में से जो भी ज्ञान मिलता है, वह सारा रिलेटिव है, और जब निःशब्द ज्ञान होता है, वह रियल है। प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा तीर्थंकरों ने गणधरों को जो ज्ञान दिया था, तो क्या वे लोग भी रिलेटिव में से रियल में गए? दादाश्री : हाँ, सभी रिलेटिव में से रियल में गए। वह सारा रिलेटिव में से अंत तक त्याग करते-करते। प्रश्नकर्ता : लेकिन प्रत्यक्ष तीर्थंकर की उपस्थिति थी न? दादाश्री : उपस्थिति हो फिर भी यों रिलेटिव ज्ञान कहलाता है। जहाँ पर कुछ भी त्याग करना हो, वह सारा रिलेटिव मार्ग है, रियल मार्ग नहीं है। रियल मार्ग में त्याग नहीं करना होता। वहाँ पर तो अहंकार रहता है। अहंकार के बिना नहीं हो सकता। प्रश्नकर्ता : अब इस हिंदुस्तान में जितने धर्म हैं, उन सभी को आपने रिलेटिव कह दिया। दादाश्री : सभी रिलेटिव ! क्रमिक में, पुस्तकों में से जाना या गुरुओं से जाना। अपने यहाँ तो मैं आपको ज्ञान दे देता हूँ। उससे रियल दर्शन उत्पन्न हो जाता है और अपने यहाँ वह शास्त्रज्ञान नहीं है। वह वाला ज्ञान हमने लिया ही नहीं है। उसे तो कूट-कूटकर, और कितना कूटें? दो मन कूटने पर एक पाव वस्तु निकलती है। अक्रम में स्वयं क्रियाकारी ज्ञान प्रश्नकर्ता : क्रमिक में पहले ज्ञान होता है और उसके बाद दर्शन में आता है। उसका उदाहरण दीजिए न। दादाश्री : वह ज्ञान कैसा है कि ऐसा करोगे तो पाप लगेगा, ऐसा करोगे तो पुण्य मिलेगा। वह ज्ञान ऐसा है। जड़ ज्ञान है, चेतन ज्ञान नहीं
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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