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________________ २७२ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) दादाश्री : 'मैं शुद्धात्मा हूँ' और 'यह फाइल है', ऐसी प्रतीति बैठ जाए तो उसे सम्यक् दर्शन कहते हैं। उसके बाद, यह फाइल ही है और फाइल को आप जानते हो कि 'इस फाइल में क्या-क्या है। इसमें क्याक्या है', अगर वह सब जानते हो तो उसे ज्ञान कहेंगे। और ज्ञाता-दृष्टा रहना, वह है चारित्र। प्रश्नकर्ता : नई डेफिनेशन है, नई परिभाषा है। बहुत पसंद आई। बहुत सुंदर प्रकार से समझाया। क्या कमी है महात्माओं में? प्रश्नकर्ता : उदाहरण के तौर पर आपको आत्मा का जो दर्शन हुआ है तो वह आत्मा के गुणों के रूप में दर्शन में आया है न! लेकिन दूसरों को वैसा दर्शन में नहीं आ सकता? दादाश्री : नहीं। सम्यक् दर्शन ही आत्मा का गुण है। आप सभी को हो चुका है न सम्यक् दर्शन! प्रश्नकर्ता : वह ठीक है लेकिन हमारे पास यह जो आत्मा का गुण है, उसका हम कोई अन्य उपयोग तो नहीं कर सकते न? दादाश्री : क्यों? करते हो न? प्रश्नकर्ता : नहीं जिस तरह से आपके द्वारा उसका उपयोग होता है... दादाश्री : उससे थोड़ा कम होगा। प्रश्नकर्ता : यों समझ में तो सभी बातें आ जाती हैं लेकिन आपको जो अनुभव होता है, आपको जो अनुभव में आता है... दादाश्री : वह दर्शन तो आपका पूर्ण हो चुका है एकदम। सिर्फ ज्ञान में अधूरा है। दर्शन तो पूर्ण हो चुका है इसलिए आपकी दृष्टि बदल गई है, पूरी ही। दर्शन अर्थात् दृष्टि। जो दृष्टि संसार सम्मुख थी वह दृष्टि पूरी ही बदल गई है और सिर्फ आत्म सम्मुख हो गई है अतः पूरी
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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