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________________ दादाश्री के प्रति राग होना, वह भी प्रशस्त राग है। उससे खूब शांति का अनुभव होता है और अगर आसक्ति हो तो वहाँ पर बाद में अशांति हो जाती है। दादाश्री डाँटे तब भी प्रशस्त राग जाता नहीं है! चूल्हा जलाया, खाना बनाया, फिर चूल्हा वापस बुझाना पड़ता है न? बुझाना था तो जलाया क्यों? वह करना ही पड़ता है, उसके बिना नहीं चलता। उसी प्रकार यह प्रशस्त राग उत्पन्न होता है और फिर अंत में चला जाता है। संसार का राग निकालने के लिए यह ज़रूरी है। क्या दादाश्री वापस मिलेंगे? जिनके साथ का हिसाब बंध गया है, वे छोड़ेंगे क्या? [2.5] वीतरागता वीतरागता में वीतराग रहते हैं लेकिन ज्ञानी तो राग में भी वीतराग रहते हैं! समत्व अर्थात् मान देने वाले पर राग नहीं और अपमान करने वाले पर द्वेष नहीं। उदासीनता अर्थात् जब अहंकार सहित राग-द्वेष न रहें। इन्द्रियों को राग-द्वेष नहीं होते। यह तो अज्ञान उल्टा दिखाता है। ज्ञानी को और अज्ञानी को जगत् एक जैसा ही दिखाई देता है। फर्क सिर्फ राग-द्वेष का ही है! ज्ञान विशाल और ऐश्वर्यवान है लेकिन खुद की बाड़ की वजह से दिखाई नहीं देता! महात्माओं को वीतराग होने की जल्दी है? यों कहीं एकदम से सौ थोड़े ही हो जाएगा! उल्टे में से सुल्टे की तरफ गया वही बड़ी बात है। अब महात्माओं को राग-द्वेष में रुचि नहीं रहती। ज्ञानी जैसी वीतरागता किस प्रकार से प्राप्त की जा सकती है? ज्ञानी के टच में रहने से। उन्हें देखकर सीखा जा सकता है। ज्ञानी की आँखें देखो। उन्हीं में वीतरागता देखने को मिलेगी। वीतराग को देखने से वीतराग बनते जाते हैं। थ्योरी लाख हो लेकिन प्रेक्टिकल देखा कि तुरंत ही आ जाता है। 32
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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