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________________ २२४ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) जगत् के पास है, बुद्धिजन्य ज्ञान! लोगों के पास ज्ञान शब्द है ही नहीं न! एक अक्षर भी ज्ञान नहीं है। पूरे जगत् में ज्ञान नहीं है। ज्ञान शब्द लाएँगे कहाँ से? इसलिए मुँह से कहते ज़रूर हैं कि, 'मुझे ज्ञान है, मुझे ज्ञान है' लेकिन वह यह नहीं समझता कि ज्ञान किसे कहते हैं ? खुद कहते ज़रूर है, जगत् में बहुत से लोग कहते हैं, 'ज्ञान'। प्रश्नकर्ता : आप जिसे ज्ञान कहते हैं, वह और जगत् जिसे ज्ञान कहता है, उसमें क्या भेद है? दादाश्री : ऐसा है न, जगत् जिसे ज्ञान कहता है न, वह ज्ञान है ही नहीं। वह समझाता हूँ आपको। पहले सुन लो न! वह ज्ञान क्यों नहीं है? इस जगत् में बुद्धि है। पूरा जगत् बुद्धि में ही है। ज्ञान में नहीं परंतु बुद्धि में। पूरे जगत् के तमाम सब्जेक्ट्स को जानता है लेकिन वह ज्ञान नहीं है। 'वह सब ज्ञान है', ऐसा नहीं कहा जाएगा, उसे बुद्धि कहेंगे। सिर्फ खुद का स्वरूप, 'मैं कौन हूँ', इतना ही जान ले तो उसे ज्ञान कहा जाएगा। क्रिया वाला ज्ञान, है मात्र अज्ञान अतः यह सारा भ्रांतिजन्य ज्ञान है। इसकी बजाय अगर कुछ नया ज्ञान जानना हो और जो वास्तविक, यथार्थ ज्ञान है, जो तीनों काल में वैसा ही रहता है, वह ज्ञान है जबकि यह भ्रांतिजन्य ज्ञान तो बदलता ही रहता है। कोई डिसिज़न नहीं आता और विरोधाभास लगता है, वह इन्द्रिय ज्ञान है। अतीन्द्रिय ज्ञान ही ज्ञान कहलाता है। जहाँ पर इन्द्रियों की ज़रूरत नहीं पड़ती। जहाँ पर मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार काम नहीं करते, वहाँ पर अतीन्द्रिय ज्ञान है। प्रश्नकर्ता : ज़रा समझना है कि यह जो क्रिया वाला ज्ञान है, वह क्या कहलाता है?
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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