SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी - १३ (उत्तरार्ध) जड़ अज्ञान है, घोर अँधेरा । और उसके बाद मोह वगैरह तो उसके विभाजन हैं। २२२ आत्मज्ञान प्राप्ति हो जाए, तभी से मोह के अंश कम होते जाते हैं लेकिन आत्मज्ञान के कोई अंश नहीं होते । आत्मज्ञान सर्वांश है । मोह कम होता है तो उस मोह के अंश होते हैं । ज्ञान का अंत है, अज्ञान का नहीं प्रश्नकर्ता: ज्ञान का कोई अंत है या उत्तरोत्तर उसका घेरा बढ़ता ही जाता है ? दादाश्री : ऐसा है न, अज्ञान का अंत नहीं है । यह अंत किसका नहीं है ? अज्ञान का अंत आता ही नहीं है । उसका छोर ही नहीं है। ज्ञान तो अंत वाला ही होता है । फाइनल हो ही जाना चाहिए। वर्ना फाइनल होने के बाद तो, मैं ऐसा कहता हूँ कि मैंने फाइनल की परीक्षा दे दी है, उस फाइनल में फेल हुआ हूँ लेकिन परीक्षा तो दे ही दी है न फाइनल की ? अतः फाइनल लिमिट है तो सही । यदि उत्तरोत्तर उसका घेरा बढ़ता ही जाए तब तो फिर वह ज्ञान ही नहीं कहलाएगा। अज्ञान ही कहलाएगा। यह जो व्यवहार में चल रहा है न, वह अज्ञान है, ज्ञान कल्पित रूप में है । है अज्ञान लेकिन ज्ञान कौन से रूप में है ? कल्पित । कितने ही कल्चर्ड हीरे के हार होते हैं न, यों कल्चर्ड मोती की माला होती है और उसे हम सच मान लें, उस जैसी चीज़ है। ज्ञान तो अंत वाला है । उसका विस्तार बढ़ता नहीं जाता । प्रश्नकर्ता : तो फिर पूर्णता का मतलब क्या है ? दादाश्री : पूर्णता अर्थात् जिसका अंत आ जाए, वह पूर्ण ज्ञान कहलाता है और जिसका अंत ही नहीं आता, वह अज्ञान कहलाता है। हम चलते ही जाएँ लेकिन अगर मंज़िल तक न पहुँचें, तो वह कौन सा
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy