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________________ २१२ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) नहीं मिलता। दूसरे संयोग मिलते हैं। मदिरा पी ली न? अज्ञानता ही अहंकार है। प्रश्नकर्ता : आत्मा तो मूल प्रकाश है, अनंत शक्ति वाला है तो उसमें यह अहंकार कहाँ से आ जाता है ? दादाश्री : उसमें कहाँ से आता है ? अज्ञानता खुद ही अहंकार है। प्रश्नकर्ता : अगर आवरण आ जाए तो भी हर्ज क्या है? वह खुद तो जानता ही है न कि 'मैं प्रकाश हूँ'। दादाश्री : उससे कुछ नहीं होगा। अहंकार को क्या लाभ है? जब तक अहंकार को मीठा नहीं लगता तब तक वह यह नहीं कहेगा कि 'यह शक्कर है' अतः अहंकार का निबेड़ा लाना है। आत्मा का निबेड़ा तो है ही। ज्ञान, स्व-पर प्रकाशक प्रश्नकर्ता : आपको आत्मा की अनुभूति हुई, आत्मा का ज्ञान हुआ। अब आप औरों को आत्मा का ज्ञान देते हैं क्योंकि दादा खुद आत्मज्ञानी हैं न! लोगों को आत्मा-अज्ञानी मानकर देते हैं या ज्ञानी मानकर? दादाश्री : अज्ञानी मानकर। प्रश्नकर्ता : आत्मा तो व्यापक है, एकरूप है। दादाश्री : नहीं! उस आत्मा को तो हम देखते हैं और अज्ञानी को भी देखते हैं। दोनों को अलग-अलग देखते हैं। जिसे क्रोध-मानमाया-लोभ और जलन है, वह अज्ञानी है और जिसे जलन नहीं है, वह ज्ञानी है। प्रश्नकर्ता : इसका मतलब यह हुआ कि जागृति इस अज्ञान के ज्ञान को भी जानती है। अतः ज्ञानी उन दोनों का दृष्टा बनता है, अज्ञान के ज्ञान का और ज्ञान के ज्ञान का।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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